मैं भागती रही , दौड़ती रही,
कुछ पाने की चाह मे,
यह कर लूं, वह पा लूं,
थमी नहीं रुकी नहीं,
लेकिन
जीवन की शाम मे
थोड़ा रुकी, थोड़ा थमी,
एक पल , एक क्षण के लिए,
क्या सोचा, क्या पाया, क्या खोया,
जो जैसा था , वो वैसा ही रहा।
मैं भाग रही थी,
यूं ही कुछ पाने की चाह मे!
अब न कोई चाह है,
न कोई नई राह है।
शायद वह जीवन की कोई
मृगतृष्णा थी।
जिसकी तलाश मे मैं,
भागती रही , दौड़ती रही,
कुछ पाने की चाह मे,
जो पाया वो चाहा नहीं,
जो चाहा वो पाया नहीं,
मैं दौड़ती रही,
कुछ पाने की चाह मे,
अब न तमन्ना हैं,
न ताकत है
फिर क्यों मैं भागी,
कुछ पाने की चाह मे,
शायद यही जीवन का तथ्य है,